आत्मसाक्षात्कार

ऋषि कहते हैं आत्मसाक्षात्कार ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है , बात थोड़ी अटपटी लगती है कोई बाहरी हो उसका साक्षात्कार करना हो उससे मिलना हो तो समझ आता है कि  हा हम कभी उससे मिले नहीं , लेकिन स्वयं  से तो हम रोज मिलते हैं बल्कि ज्यादा समय हम स्वयं  के ही ख्यालो में खोये रहते हैं ,स्वयं की ख़ुशी ,स्वयं  के दुःख  , स्वयं  का मा न, अपमान और घमंड, अब और किस तरह से स्वयं  से मिले और अगर स्वयं से मिलना ही जीवन लक्ष्य है तो वो तो हमने कबका पा लिया। 

 शास्त्र  कहते हैं तुम आत्म या स्वयं से क्या समझते हो ? प्रश्न  बहुत सीधा है तुम कौन हो , जिसे तुम स्वयं कह रहे वो  कौन है? क्या तुम्हारा नाम  तुम हो ? थोड़ा विचार करने पर हमें समझ आता है इस  दुनियाँ में जो मेरी सबसे बड़ी पहचान है वो मेरा नाम है  लेकिन सत्य  समझ आ  रहा की मेरा नाम मैं नहीं  हूँ।  हम इसे  सोच ही रहे होते हैं की शास्त्र दूसरा प्रश्न करते हैं  तुम्हारा घर ,गाड़ी,बंगले ,रिश्ते ,नाते  हो?क्या इसे  तुम स्वयं कह रहे ?आत्म  समझ रहे?  स्पष्ट  जवाब आता है  की इनमे से कुछ भी मैं नहीं  हूँ। 

अबकी शास्त्र सीधे  हमारी  तरफ देखकर प्रश्न करते  हैं  अच्छा जब तुम स्नान करने जाते हो(क्युकि  वही  शायद  एक समय है जब तुम  थोड़ा अकेले रहते हो)   और अपनी सारी मान्य पहचानो से दूर एकदम नितांत  अकेले होते हो ,जब  शरीर के वस्त्र तक छोड़ देते हो तब पास जो शरीर बचता है क्या वो हो तुम ? क्या उसे तुम आत्म बोल सकते हो ? जवाब आता है हां  मै कब  से यही तो कह रहा हूँ  शरीर यही मैं हूँ ।  शास्त्र कहते हैं शरीर में कौन सा अंग तुम हो?हाथ ,पैर , आंख , कान , गुर्दा , ह्रदय तुम कौन सा हो ? क्या शरीर के अंग काट देने से तुम खत्म हो जाओगे ?क्या हाथ कटने से तुम्हारे  स्व का भी अंत होगा ? क्या पैर टूट जाये तो तुम्हारा आत्म नष्ट हो जायेगा ,  आगे  शास्त्र  पूछते हैं  जरा ये बताओ क्या मृत्यु से पहले और मृत्यु तुरंत बाद तुम्हारा ये शरीर नहीं रहता एक सामान सा ? फिर मृत्यु से ऐसा क्या होता है की तुम्हारा शरीर रहते हुए भी तुम वहां नहीं रहते? अगर ये शरीर ही तुम हो तो मृत्यु के बाद भी शरीर तो रहता ही है फिर वो आत्म क्यों  नहीं रहता?

हमारा जवाब आता शरीर  के अंदर एक ऊर्जा है जिसकी वजह से हम जिन्दा रहते हैं , वो ऊर्जा निकल जाने से हम शरीर के रहते हुए भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं ? शास्त्र पूछते मतलब  वो जो ऊर्जा अंदर है वही तुम  हो? वो ऊर्जा ही तुम्हारा आत्म  है ? तो बताओ अब उस ऊर्जा को तुमने आजतक कितनी बार देखा ?कितने बार तुमने उसका साक्षात्कार किया? अच्छा  चलो ये तो बताओ वो ऊर्जा क्या एकदम जड़ है? जैसे की अभी जीतनी प्रकार की उर्जाओ को तुम जानते हो वो सब हैं जड़ ,चाहे वो बिजली है,जल की ऊर्जा है,वायु  की ऊर्जा है  क्या इसी तरह तुम्हारे अंदर जो ऊर्जा है वो भी जड़ है , अगर वो जड़ है तो फिर उस ऊर्जा को उत्पन करने वाला कौन है? क्युकी जड़ ऊर्जा को  कोई ना  कोई उत्पन्न करेगा ,बताओ कौन तुम्हारे  ऊर्जा को उत्पन्न करता है,और  वो उत्पन्न करने वाला क्या वो भी तुम्हारे अंदर ही है  या कही बाहर ? अब  हमें जवाब कुछ नहीं सूझता शास्त्र हमें देखकर  बड़े प्यार से हस्ते हैं और गुरु की भांति  हमें समझाते हैं। 

 शास्त्र कहते हैं – ये सच है की अन्दर एक ऊर्जा जैसा कुछ है लेकिन वो उस तरह की जड़ ऊर्जा नहीं  जैसा तुम  बाहर संसार में  देख रहे , जो ऊर्जा अंदर  है  वो चेतन है , वो परमज्ञान स्वरुप , स्वप्रकाशज , कभी ना नष्ट होने वाली है, परम निर्दोष ,सनातन ,चिदानंद  है , वास्तव में उसे ऊर्जा कहना और  मात्र जड़ ऊर्जा समझना उसका  अपमान है वो जड़ ऊर्जा नहीं बल्कि चेतना है ,यही  वो चेतना  है जिसे आत्मा कहते हैं , यही वो चेतना है जो मनुष्य में ईश्वर का अंश है , ये चेतना ही है  जो सोऽहं  का उद्घोष करती है  हर स्वास प्रस्वास में। इसी चेतना से मिलन ही आत्मसाक्षात्कार है , इस चेतना में  पूर्ण समाहित  हो जाना  ही है मुक्त हो जाना। 

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