नियम क्या हैं ?

ashtang Yoga Niyam

अष्टांग योग का दूसरा  अंग है नियम  ,नियम  के पांच उपांग है या यूँ कहे इन पांच चीजों की साधना ही नियम की साधना है , महर्षि पतंजलि लिखते हैं 

शौचसंतोषतपः स्वधायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। 

अर्थात शौच ,संतोष ,तपस्या ,स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान नियम हैं। 

 १.  शौच :- 

            शौचं तु द्विविध प्रोक्तं बाह्यमभ्यन्तरन्तथा।  मृदजलाभ्याम स्मृतं बाह्यं मनः शुद्धिस्तथान्तरम।।

शरीर और मन के मैल को दूर करने का नाम ही शौच है। शौच अर्थात सफाई दो तरह की मानी गई है पहली है बाह्य (बाहर की ) जल ,मिटटी (उस समय के हिसाब से) आदि से शरीर ,वस्त्र ,मकान आदि की सफाई करना बाह्य शुद्धि है। जप ,तप ,शुद्ध विचार ,दया, करुणा आदि की भावनाओ के विकास से मन की शुद्धि आंतरिक शुद्धि होती है। 

२.संतोष  :-

       यद्रच्च्छा लाभतो नित्यं मनः पुन्सो भवेदिति।  याधीस्तामृषयः  प्राहुः संतोषं सुखलक्षणम्।

प्रतिदिन कर्तव्य कर्मका पालन करते हुए जो कुछ मिल जाये उसमे ही संतुष्ट रहने को ही संतोष कहते हैं। यहाँ कुछ बातें समझ लेने लायक हैं संतोष का मतलब भाग्य भरोसे रहना या कुछ भी पुरुषार्थ ही न करना नहीं होता उसे आलस्य कहते हैं संतोष नहीं। संतोष का मतलब है अपना कर्म पूरी निष्ठा से करे मन लगाकर बस उसके परिणाम जो भी मिले उसमे संतोष रखे इच्छानुकूल मिला तो ठीक है खुश रहे नहीं मिला तो भी ठीक है खुश रहे  में हर परिस्थिति में संतुष्ट रहना ही संतोष है। 

३. तपस्या  :- बिना तप के योग की सिद्धि नहीं होती लेकिन तप को लेकर अलग अलग ऋषियों के मत अलग हैं , जैसे कि योगी याज्ञवल्क्य में लिखा है 

             विधिनोक्तेन मार्गेण कुच्छृचांद्रायणादिभिः , 

शरीर शोषणं प्रहस्तपस्या तप उत्तम।                                                                                                    

वेद के विधान से कुछ चन्द्रायण आदि व्रत और उपवास के द्वारा शरीर को शुष्क करने को तप कहते हैं , इसके अलावा यदि आप निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए शरीर या मन को कष्ट मिले उसे प्रसन्नता पूर्वक सह लेने को भी तप कहते हैं। तप से शरीर को थोड़े बहुत कष्ट सहने की आदत पड़ती है साथ ही कर्म (निष्काम कर्म ) से ही हमारे पुराने संचित कर्मो का भी नाश होता है लेकिन तप का मतलब शरीर को बहुत कष्ट देना भी नहीं है ,क्युकि  वास्तव में हमारा स्वस्थ शरीर ही साधना के लिए सबसे जरुरी है। जो गृहत्यागी सन्यासी हैं उनकी तप की विधि अलग है यदि आप गृहस्थ है तो निष्काम भाव से कर्म करना और शरीर को आलस्य से दूर रखते हुए कष्ट देना ही तप है।  इसके साथ उपवास आदि से हमारे शरीर की शुद्धि होती है ,शरीर के आंतरिक अंगो को आराम मिलता है। 

४.स्वाध्याय  :-

स्वाध्यायः प्रणव श्रीरुद्रपुरुषसूक्तादिमंत्रणामजपः मोक्षशास्त्रध्यनंच।  

प्रणव और सूक्त मंत्रो आदि का अर्थ पूर्वक जप करने और मोक्षदायक शास्त्रों का अध्ययन करने को स्वाध्याय कहते हैं।                                      यथार्थ रूप में स्वाध्याय का मतलब  स्व का अध्ययन (अर्थात खुद का अध्ययन ) होता है , खुद का अध्ययन करने का विवेक प्राप्त करने के लिए हमें कुछ शास्त्रों,वेदों ,सूक्तियों , महापुरुषों की वाणी आदि का पठन पाठन करना होता है ये सब स्वाध्याय के अंतरगत ही आता है। इन ग्रंथो से प्राप्त विवेक और ज्ञान से अपनी बुराइयों और दोषों को निकाल कर दूर करना तथा सद्गुणों को पुष्ट करना और अपने आत्मतत्व के बारे में चिंतन करना ही स्वाध्याय की साधना है। 

५. ईश्वर प्रणिधान :-

                         ईश्वर प्रणिधानाद्वा |

भक्ति और श्रद्धा के साथ ईश्वर के प्रति समर्पित होकर  उनकी उपासना करना ही ईश्वरप्रणिधान है। बिना समर्पण के जीवन में कुछ भी हासिल नहीं हो सकता छोटी से छोटी चीज के लिए भी आपको समर्पण करना होता है। आपके योग सिद्धि के लिए आवस्यक है की पूर्ण समर्पण हो ,वो ईश्वर कोई भी हो सकता है जिसकी आप पूजा करते हो किसी की नहीं  करते तो परम सत्ता जो आपके अंदर हरदम विराजमान है उसी के प्रति ही समर्पण रखिये , समर्पण से भरोशा उत्पन्न होता है।  

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