shiv shakti

 शक्ति के बिना शिव शव है , अगर आप थोड़ा विचार करेंगे  की मुर्दा शरीर को भी हम शव ही कहते हैं , वास्तव में शास्त्र जिस शिव की बात कर रहे थे वो आप स्वयं हैं ये आपका ही शरीर बिना शक्ति के शव है , शक्ति क्या है ? प्राण शक्ति कोई उसे कुण्डलिनी कहते हैं ,कोई चेतना कोई प्राण वास्तव में थोड़ा अलग अलग रूप में होते हुए ये सभी  एक ही हैं, यही वो शक्ति है जिसके बारे में वेद शास्त्र कहते हैं की तत्वमसि । 

आपके अनजाने में ही ये प्राण शक्ति कुछ अंशो में आपके अंदर हमेशा विद्यमान है , हमारी सांसो के माध्यम से ये प्राण शक्ति हर वक्त  प्रवाहित होती रहती है इसीलिए कुछ अंशो में हर व्यक्ति हमेशा शिव ही है किन्तु ये विस्मृति की अवस्था है , मानो किसी रईस घर का एकलौता लड़का पागल होकर इधर उधर भटकता रहे इस बात से अंजान की वो करोङो का मालिक है , अपने उस पागलपन की अवस्था में जब वो इधर उधर भीख मांगता फिर रहा है उस समय भी वो करोडो का मालिक ही है उस समय भी वो रईस ही है ,जिस  क्षण उसका पागलपन दूर होगा उसे खुद का अहसास होगा उसी क्षण वो रईस हो जायेगा वापस अपने माँ बाप के पास लौट जायेगा दुबारा उन गलियों में कभी नहीं दिखेगा। 

बात आती है की उसका पागलपन दूर कैसे होगा , दूर होगा यदि कोई उसका जानने वाला उसे  और उसे पहचान कर वापस ले जाये या किसी सहृदय डॉक्टर को उसपे दया आजाये और उसे दवा से ठीक कर दे ,गुरु और प्रभु के सच्चे भक्त ये लोग ही होते हैं जो हमारे पागलपन को दूर करके वापस अपने घर  पहुचाते हैं। 

इसलिए कुछ अंश में हर जीवित व्यक्ति शिव ही है सबके अंदर वो परम  चेतना बैठी है ,जो हमारे सांसो के माध्यम से बार बार हमें सोहं  का अहसास कराती है। 

हम अपने शरीर में इस प्राण शक्ति को बढ़ाये कैसे ? शव से शिव की यात्रा शुरू कैसे हो ? उसके लिए सबसे पहली सीढ़ी तो यही है हमें ये समझ आजाये की हम शव हैं यात्रा यही से शुरू होगी जब तक आप अपने को सबकुछ का कर्ता मानकर अभिमान में बैठे रहोगे खुद को ही सबकुछ समझकर बैठे रहोगे तब तक ये यात्रा शुरू  होगी , घर वापसी के लिए आपको सबसे पहले ये पता होना चाहिए आप जहा हो वो आपका घर नहीं है। 

इसके बाद आगे की यात्रा शुरू होती है पहला कार्य है उस परमपिता में श्रद्धा , श्री कृष्ण  गीता  में कहते  हैं 

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय: |
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति। 

 कई बार हम बहुत सी किताबे पढ़कर अद्वैत अद्वैत बोलते हैं और घमंड में हम शिवोहम कहते हैं और  किसी देवता  या भगवान  के अस्तित्व को मांनने से इंकार  करते हैं , वास्तव  में  ये निरा पागलपन  के अलावा कुछ नहीं , शिवोहम तर्क से या किताबों से समझ आने की बात नहीं जब तक आपको वास्तव में अपने सर्वव्यापकता का अनुभव  न हो जाये , शिवोहं जैसे महान  वाक्य को बोलना  सिर्फ आपका अभिमान है  और कुछ नहीं। 

उसके बाद की यात्रा का मार्ग योग की तरफ जाता है योग कई तरह के होते हैं अष्टांग योग ,भक्ति योग ,ज्ञान योग ,कर्म योग इनमे से किसी एक पर चलकर आप अपने निज गृह को वापस जा सकते हैं वास्तव में ये सभी योग एक दूसरे में घुले मिले हैं ऊपर तौर पर इनमे कुछ अलगाव दीखता हैं किन्तु अंत सबका एक जगह ही है और ये सभी आपस में मिले रहने से ही जल्द से जल्द आपकी स्वधाम वापसी होती है। 

अष्टांग योग में  आसान ,प्राणायाम,ध्यान  अदि के माध्यम से हम अपनी प्राण शक्ति को बढ़ा कर समाधि  की अवस्था में शिवत्त को प्राप्त होते हैं। ये इस तरह है की वो पागल बालक को किसी रोज ये चेतना आजाये (चाहे कुछ समय के लिए ही सही) की वो पागल है और वो ठीक होने के उपाय ढूढने लगे और गुरु रूपी वैद्य उसे योग रूपी औषधि देकर उसका पागलपन दूर कर दे । 

भक्ति योग में प्रभु को ही सर्वस्वः अर्पण करके उनके कृपा से अपने गृह को लौट जाते हैं ये ऐसे है की जैसे उस पागल बालक को अचानक से एकदिन अपने माँ बाप का नाम बता याद आजाये और वो ये समझ जाये उसके पिता जो की परम पिता हैं वो सर्व समर्थवान हैं वो उसे एकदिन वापस ले जायेंगे और वो उनसे सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करने लगे। 

ज्ञान  योग  में हम अपने स्व का अनुभव ज्ञान के माध्यम से करते हैं (किन्तु  सिर्फ  किताबी तर्कों से नहीं), हमें अपने स्व  का विस्तार  करते  करते चेतना  को उस स्तर पर  ले जाते  हैं जहां समूर्ण जगत के अद्वैत का अनुभव होता है जहा स्वतः  ही शिवोहं और सोऽहं का अनुभव होता है। ये ऐसे है की जैसे उस पागल बालक को कोई अनुभवी गुरु रूपी वैद्य मिल जाये और जो उसे ज्ञान रूपी औसधी देकर उसके पागलपन  रूपी अज्ञान को दूर कर देता है। 

By Admin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *