यम क्या है  ?

अष्टांग योग का पहला अंग है यम ,यम के पांच उपांग है या यूँ कहे इन पांच चीजों की साधना ही यम की साधना है , महर्षि पतंजलि लिखते हैं 

अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।  

अर्थात अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह इन सब को यम कहते हैं। अब हम इन पांचो के बारे में विस्तार से देखेंगे –

१. अहिंसा  –  मनोवाककायै: सर्वभूतानांमपीडनम् अहिंसा।  मन वचन और कर्म से भूत समूह (किसी भी प्राणी) को पीड़ा न पहुंचना ही अहिंसा है। मन को सबसे पहले लिखा है क्युकी वास्तविक हिंसा की शुरुवात ही वही से होती है हिंसा का मतलब सिर्फ दूसरे के प्रति ही नहीं कई बार हम स्वयं के प्रति भी हिंसक होते है , जैसे बिना अपने प्रति जागरूक हुए उल्टे सीधे कार्य करना जिससे अन्ततः हमें पीड़ा ही मिलती है। मन में किसी के भी प्रति किसी प्रकार की हिंसा न रहे तो वचन , और कर्म से अपने आप हिंसा ख़तम हो जाएगी किन्तु शुरुवात में हमारे स्वाभाव अनुसार हिंसा तो रहेगी ही मन में हमें बस जागरूक रहना है जैसे जब किसी पर बहुत क्रोध आये और कुछ उपशब्द निकलना ही चाहे की हम खुद को बल पूर्वक रोके की नहीं ये हिंसा नहीं करनी इस तरह छोटे से छोटे जीव के भी जीवन के प्रति सचेत होकर हम अपने कर्मो में अहिंसा ला सकते हैं इससे अहिंसा की साधना पूरी होगी।

२.सत्य  – परहिताय  वाङ्ग्मन्सोर्यथार्थत्व्यं  सत्यं। 

दुसरो की भलाई के लिए बात करने और दुसरो के लिए मन का जो यथार्थ भाव है उसे सत्य कहते हैं। या दूसरे शब्दों में कहे यथार्थ रूप में जो चीज आपको पता हो की सच है आपके अनुभव से आपके ज्ञान से ऐसे  कपट रहित और प्रिय वचन ही सत्य है। सत्य और प्रिय हो आपकी वाणी कई बार हम अप्रिय सत्य भी बोलते हैं जिस सत्य से किसी को उद्वेग उत्पन्न हो दुःख हो ऐसे सत्य की भी जरुरत नहीं।  और ये सत्य सिर्फ दुसरो के प्रति नहीं खुद के प्रति भी रहना है, वास्तव में खुद के प्रति ही इस सत्य का ज्यादा पालन करने से ही आप दूसरों के प्रति सत्य का पालन कर पाएंगे जब आप खुद के प्रति सत्य का पालन करेंगे दुसरो के प्रति स्वतः ही सत्य  होने लगेगा यही सत्य  साधना है । 

३. अस्तेय  – परद्रव्यापहरण त्यागोस्तेयम। 

दुसरो के द्रव्य (वस्तु) के अपहरण को त्यागने का नाम ही अस्तेय है। वास्तव में किसी भी प्रकार की चोरी का त्याग करना ही अस्तेय है , दूसरे की कोई भी वस्तु जैसे उसका धन ,दौलत ,किसी के विचार ,छोटी मोटी चीजे कुछ भी बल पूर्वक या छल पूर्वक अन्याय के द्वारा अपना बना ही चोरी है और इसका पूर्णतः त्याग ही अस्तेय है। 

४. ब्रहचर्य  – 

                    कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।   सर्वदा मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते।  

              मन वाणी और कर्म(शरीर) से सभी प्रकार के मैथुन का त्याग करके शरीर में वीर्य की रक्षा करना ही ब्रहचर्य है। त्याग का तात्पर्य ये नहीं की अगर आप गृहस्ठ है तो आपको सब छोड़कर सन्यासी बन जाना है ,आप अपने जीवन में रहे और हर वक्त की कामुकता से बचते हुए अपनी साधना करे ,मन में बुरे विचार ज्यादा न लाये। 

५. अपरिग्रह  – जितने से जीवन सुख पूर्वक चल जाये उससे ज्यादा का संग्रह न करना ही अपरिग्रह है , मतलब अपनी भोग की जो प्रवृत्ति ही उसका त्याग ही अपरिग्रह  है।  जैसे हमारे पास बाहत कुछ चीजे अनायास ही  साल २ साल में कभी उनका है उपयोग सिर्फ नाम के लिए कर  लेते हैं तो ऐसी  चीजों का संग्रह करके रखना ही परिग्रह है ,उनका त्याग ही अपरिग्रह।  कुल मिला कर बेवजह का कूड़ा करकट सिर्फ भोग के उद्देश्य से बोझ की तरह जमा करके नहीं रखना , जो हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी है उन्ही चीजों को ही अपने पास रखना। 

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